कादम्बिनी रसवती गगनं समास्य श्लोक का अर्थ


 

कादम्बिनी रसवती गगनं समास्य 

राजन्वतीं रसवतीं कुरुते यदासौ। 

सञ्जीवनीं प्रतिजलं वनितां विलोक्य 

ह्यालिङ्गितुञ्च परिचुम्बितुमेति चित्तम्।। 


        जब जलसे भरी हुयी मेघ की माला पुरे गगनमें व्याप्त होकर इस धरा को जलयुक्त बनाती है तब उस की हर बुंदमें मुझे अपनी सञ्जीवनी प्रेयसी ही दिखाई देती हैं और उसे देखकर उसे गले लगाने के लिए और चुमने के लिए मेरा मन चला जाता हैं। 

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